फसलो को क्षति पहुँचाने वाले प्रमुख कीट टिड्डी (Locust)
अन्य नाम- टॉडी
वैज्ञानिक नाम -
टिड्डी की भारतवर्ष में तीन जातियाँ मिलती है-
( 1 ) Locusta migratoria Lin ( Migratory locust )
( 2 )
Patanga succinata Lin ( Bombay locust )
( 3 ) Schistocerca gregaria
Forsk ( Desert locust )
इनमें से अन्तिम
जाति बहुत अधिक हानिकारक है ।
Order - Orthoptera
Family- Locustidae
पोषक पौधे - ये सर्वभक्षी कीटों की श्रेणी में है अतः किसी भी पौधे को नुकसान कर सकती हैं । आक , नीम , जामुन तथा शीशम को नहीं खातीं ।
वितरण
- ये लगभग सभी जगह अन्तर्राष्ट्रीय
शत्रु के रूप में जानी जाती हैं । उत्तरी - पश्चिमी अफ्रीका से लेकर सभी मध्य
पूर्व के देशों में इसका प्रकोप होता है , उत्तर में पुर्तगाल , दक्षिण
स्पेन तथा तुर्की आदि । भारत में इसका प्रकोप पूर्व में आसाम से लेकर , दक्षिण
में केरल तक पाया जाता है ।
क्षति
एवं महत्व- भारतवर्ष में इसके प्रकोप को बहुत
महत्व दिया जाता है क्योंकि जब जब इनका आक्रमण हुआ है तब - तब देश में एक बड़ा
अकाल पड़ा है । सन् 1812 से लेकर अभी तक 15 बार इसका प्रकोप हो चुका है । ये वर्ष 1812 , 1821 , 1834 , 1843 , 1863 , 1869 , 1878 , 1889
, 1894 , 1896-97 , 1901-03 , 1906-07 , 1912-15 , 1926-31 , 1940-46 और 1949-63
हैं । एक वैज्ञानिक के अनुसार
टिड्डियाँ अपने आक्रमण से चमन को वीरान बना देती हैं ।
जीवन
इतिहास - इनके जीवन इतिहास में तीन अवस्थायें , अण्डा
, शिशु
और प्रौढ़ होती हैं ।
अण्डा- अण्डे 50
से लेकर 1500 तक समूह
में गड्ढों में दिये जाते हैं । मादा बालू से 8
से 15 रोमी ० गहरे गड्ढे स्वयं बनाती है ।
अण्डे देने के पश्चात् मादा झागदार द्रव निकालती है जो कि अण्डों के ऊपर कठोर पर्त
बनाता है । प्रत्येक अण्डा चावल के दाने के समान , पीले रंग का 7-8 मिमी
० लम्बा होता है तथा इसकी मोटाई लगभग । मिमी ० होती है । वातावरण के तापक्रम या
नमी के अनुसार से सप्ताह में पककर फूटते हैं । अण्डों के पूर्ण विकसित होने के
लिये भूमि में निश्चित नमी का होना अति आवश्यक है । यदि यह नमी वर्षा के द्वारा
पूरी हुई तो यह अण्डे फूट जाते हैं तथा उनसे एक विशेष प्रकार शिशु निकलते हैं
जिनका शरीर एक पतली झिल्ली से ढका रहता है । ये ऊपर की झिल्ली गिराकर साधारण
शिशुओं में परिवर्तित होते हैं ।
शिशु- अण्डों से निकलने के बाद शिशुओं का रंग , आकार तथा स्वभाव इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस फेज ( phase ) , सोलेटरी या मीगेरियस के हैं । ये शिशु पाँच बार त्वचा निर्मोचन करके 3 से 10 सप्ताह में ( वातावरण की दशाओं के अनुसार ) प्रौढ़ टिड्डियों में बदल जाते हैं । इससे 10-15 दिन बाद ये मैथुन करते हैं ।
नियन्त्रण - इसके नियन्त्रण के उपाय निम्न है
( 1 ) सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि टिड्डियों के
सम्भावित प्रकोप को ज्ञात करके उसे सभी स्थाने पर बता दिया जाये ताकि सुरक्षात्मक
तरीके अपनाये जा सकें । इसके लिये आवश्यक है कि अन्तर्रा संगठन हो , जो
इसके प्रकोप की समय - समय पर सूचना देता रहे । भारत में लोकस्ट वार्निंग
आर्गेनाइजेशन सन् 1939 से कार्य कर रहा है परन्तु इनका सम्बन्ध दूसरे
देशों की सीमाओं से है अतः अन्य देशों है । सहयोग आवश्यक है ।
( 2 ) जहाँ तक हो सके इसके प्रजनन को कम करना चाहिए ।
इसके लिये जहाँ अण्डे दिये जाते है वहाँ पर खुदाई आदि करके नष्ट कर देना चाहिए ।
इसके पश्चात् शिशु बन जाने के बाद भी इनको किया जा सकता है
( क
) या तो इनके रास्तों में खाइयाँ ( trenches ) खोद
देते हैं , उनमें गिर जाने के पश्चात् नष्ट किये जा सकते
हैं क्योंकि ये उड़ नहीं पाती हैं ।
( ख
) या इनके रास्ते में जहरीला चारा ( poisonous bait ) फैला देते हैं जिसको खाकर ये जाती हैं । जहरीले
चारे में निम्न चीजें मिलाते हैं
गेहूँ की भूसी – 95 भाग
बी ० एच ० सौ ०
चूर्ण- 5 भाग
शीरा - थोड़ा सा
( 3 ) प्रौढ़ कोटों को 10 प्रतिशत
बी ० एच ० सी ० चूर्ण से नष्ट किया जा सकता है ।
(4 ) यदि फसलों पर 0.1 प्रतिशत नीम के बीजों के पाउडर को घोल बनाकर छिड़का जाय लगभग 3 सप्ताह तक फसल इनके प्रकोप से सुरक्षित रहती है ।
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