जैविक नियंत्रण क्या है कितने प्रकार से कीट को नितंत्रण करेगें
जैविक नियंत्रण प्रबंधन
जैविक नियंत्रण एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें फसलों को हानिकारक कीटो तथा बीमारियों से बचाने के लिए । किसानों को एक से अधिक तरीकों को जैसे- व्यवहारिक कि जैविक तथा रासायनिक प्रबंधन इस तरह से क्रमानुसार प्रयोग कि फसलों को हानि पहुंचाने वाले नाशीजीवों की सख्या आर्थिक हानि स्तर से नीचे बनी रहे और रासायनिक जहरों का प्रयोग तभी किया जाए जब अन्य अपनाए गये तरीके सफल न हो । 4 एकीकृत नाशीजीन प्रबंधन ( आधुनिक खेती की आवश्यकता आई.पी.एम का उद्देश्य फसल की बुआई से लेकर कटाई तक हानिकारक कौड़ो बीमारियों तथा उनके प्राकृतिक शत्रुओं की लगातार एवं निगरानी रखना । एवं बीमारियों को उनके आर्थिक बाति स्तर से नीचे रखने के लिए सभी उपलब्ध प्रबंधन विधियों जैसे व्यवहारिक अनुवासिक जैविक संगरोध व रासायनिक नियंत्रण का समेकित करना । एवं बीमारियों के आर्थिक हानि स्तर ( ईआई एल ) को पार कर लेने पर सुरक्षित कीटनाशकों को सही पर सही मात्रा में प्रयोग करना कृषि उत्पादन में कम लागत लगाकर अधिक लाभ प्राप्त करने तथा साथ साथ वातावरण को प्रदूषण से बचे Integrated pest management ( IPM ) नाशीजीवों के नियंत्रण की सस्ती और वाली विधि है जो नाशीजीवों को न की सभी विधियों के समुचित तालमेल पर आधारित है । इसका लक्ष्य एक सीमा के नीचे बनाये रखना है । इस सीमा को आर्थिक हानि सार ( Economic Injury Level ) परिचय तन्त्र वर्तमान समय में जहां एक ओर उत्तम किस्मों के आने से तथा उत्तम महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर कृषि पारिस्थितिक तरह - तरह के कीड़ों व बीमारियों में भी वृद्धि हुई है । इन कीड़ो जहरों ( पेस्टीसाइड ) को मुख्य हथियार के रूप में लेकिन आगे चलकर इनसे अनेक समस्याएं पैदा हो गई ।
( 1 ) अन्य प्रबंधन अपनाने से फसल की में भौतिक , किसस्य परिवर्तनों के कारण फसल में बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए किय अपनाया । ये कीटनाशको ( शहर ) किसानों के लिए हुए पेस्टीसाइज के इस्तेमाल से हमारा वातावरण दिन प्रतिदिन ज्यादा से ज्यादा प्रदूषित हो रहा है जिसका प्रभाव मानव जाति पर तथा अन्य प्राणियों पर भी बहुत बुरा पड़ रहा है । विभिन्न प्रकार की बीमारियां पैनिक इलाज भी आसानी से है । एक ही के
( 2 ) सम्भव नहीं बार - बार प्रयोग करने से जोड़ो तथा बीमारियों में प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है जिससे कीड़े बीमारिया निर्धारित मात्रा में उपयोग से नहीं मरते बल्कि उनकी संख्या कुछ दिनों के बाद और भी बढ़ जाती है जिस पेस्ट रिसजेन्स ( Pest Resurgence ) कहते है ।
(3 ) प्रकृति में फसलों को हानि पहुंचाने वाले कीड़ों के साथ - साथ हानिकारक कीड़ों को मारने वाले कीड़े भी मौजूद रहते हैं , जिन्हें किसानों को मित्र कोडे ( Natural Enemies ) कहा जाता है । रासायनों के अन्ध- प्रयोग से मित्र कीडे हानिकारक कीड़ों की अपेक्षा शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि ये प्राय फसल की ऊपरी सतह पर हानिकारक की की खोज में रहते है और रासायनों के सीधे सम्पर्क में आ जाते है इस तरह जो प्राकृतिक सन्तुलन दोनों तरह के कीड़ो में पाया जाता है बिगड़ जाता है और हानिकारक कीड़ों की संख्या पड़ जाती है । इस तरह जो कीड़े अब तक हानि पहुचाने की क्षमता नहीं रखते थे वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं । इसे सेकेन्ड्री पेस्ट आउट ब्रेक ( Secondary Pest Out brake ) कहते हैं । रसायनों के प्रयोग से उत्पन्न बुरे प्रभावों में से कुछ मुख्य जो मनुष्य जाति पर पड़े हैं इस प्रकार हैं
( 1
) विश्व स्वास्थ्य
संगठन
( डब्लूएच.ओ
. ) के आंकड़ो
( 1985
) के अनुसार
हर
साल
विश्व
में
दस
लाख
लोग
जहरीले
रासायनों
से
प्रभावित
हो
जाते
है
जिनमें
से
बीस
हजार
लोग
मर
जाते
हैं
।
अधिक
यू
. एन.ओ ( 1983
) की रिपोर्ट
के
अनुसार
ये
आकडे
20
लाख
तथा
40
हजार
है
।
अन्धाधुन्ध
रसायनों
के
प्रयोग
से
ये
आकसे
लगातार
बढ़ते
जा
रहे
है
. इसके लिए कड़े
कदम
उठाने
आवश्यक
है
।
( 2 ) संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा संचालित विश्व पर्यावरण विश्लेषण कार्यकत्र के आकड़ों के अनुसार भारतीय माताओं के दूध में डी . डी टी और बी . एच.सी. की मात्रा दूसरे देशों की तुलना में कम से कम चार गुणा अधिक पाई गयी है ।
( 3 ) डाक्टरों के अनुसार मनुष्य पर कई प्रकार के रासायनों से होने वाले दुष्प्रभाव सामने आए हैं , जिनमें से मुख्य इस प्रकचाप दिल का दौरा गर्भपात , अनियमित मासिक धर्म नपुंसकता इत्यादि । इन सब बुरे प्रभावों को ध्यान रखते हुए उनका प्रयोग कुछ एक फसलों पर ही करना हुए विश्व के सुनिश्चित किया है । इन सब बुरे प्रभावों को ध्यान में रखते कृषि वैज्ञानिकों ने यह सलाह दी है कि किसानों को ऐसे सभी तरीकों को क्रमानुसार प्रयोग में लाना चाहिए उनकी फसलों को कीड़ो तथा बीमारियों से बचा सक तथा साथ ही साथ पर्यावरण को भी प्रदूषित होने से बचाया जा तक ऐसी विधि को ही एकीकृत नाशीजीवी प्रबन्धन ( आई.पी.एम ) का नाम दिया गया है । जो आई . पी . एम . क्यों ? 1 दिन प्रतिदिन फसलों में रासायनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है , जिससे रासायनों के अवशेषों की मात्रा भी वातावरण में बढ़ती जा रही है , जिससे मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के स्वास्थय पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है और कई प्रकार की बीमारियां जन्म ले रही हैं । अन्धाधुन्ध तथा बिना सोचे समझे बार - बार प्रयोग से कीड़ों तथा बीमारियों में प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है जिससे रसायनों के निर्धारित मात्रा का प्रयोग करने से ये कीड़े या बीमारिया नहीं मरती बल्कि कुछ दिनों के बाद इनकी संख्या और बढ़ जाती है । ऐसी परिस्थिति में रसायनों का प्रयोग करना पर्यावरण के प्रदूषण को बढ़ाना है । आर्थिक को जिससे प्राकृतिक की क्षमता नहीं रखते पाया गया है कि फसलों को हानि पहुंचाने वाले कीड़े को मारने वाले मित्र कीड़े वातावरण में हमेशा मौजूद रहते हैं । जिससे हानिकारक तथा लाभदायक कीड़ों का प्राकृतिक संतुलन हमेशा बना रहता है और फसलों का कोई हानि नही पहुंचती । लेकिन रासानिक जहरों के प्रयोग से मित्र कीड़े शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि वे प्रायः फसल ऊपरी सतह पर शत्रु कीड़ों की खोज में रहते है । मित्र कीड़े रासायनिक कीटनाशकों के सीधे संपर्क में आ जाते हैं । संतुलन बिगड़ जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि जो कीडे अब तक आर्थिक हानि पहुँचाने थे अर्थात उनकी संख्या कम थी . वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं । रासायनिक जहरों के प्रयोग से किसानों का फसल उत्पादन खर्च बढ़ जाता है जिससे किसानों के उत्पादन में काफी कमी हो जाती है रासायनों के दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए किसानों के लिये आई . पी . एम विधि अपनाना अनिवार्य है । 3 आई . पी एम कैसे ? बीज के चयन तथा बुआई से लेकर फसल की कटाई तक विभिन्न विधिया , जो प्रयोग , समयानुसार एवं क्रमानुसार आई पी . एम . विधि में अपनाई जाती है , इस प्रकार हैं
1. व्यवहारिक विधि
2. यात्रिक विधि
3. अनुवाशिक विधि
4. संगरोध विधि
5. जैविक विधि
6. रसायनिक विधि ( यदि जरूरत पड़े तब करना है )
1. व्यवहारिक विधि : व्यवहारिक नियन्त्रण से तात्पर्य है , कि परम्परागत अपनाए जाने वाले कृषि क्रियाओं में ऐसा क्या परिवर्तन लाया जाए , जिससे कीड़ों तथा बीमारियों से होने वाले समस्याओं को या तो रोका जाए या कम किया जाए । ये विधियां हमारे पूर्वजों के समय से चली आ रही है लेकिन आधुनिक रासायनों के आने से इनका प्रयोग कम होता जा रहा है । इसके अंतगर्त निन्मलिखित तरीके अपनाएं जाते है :
1 . खेतों से फसल अवशेषों का हटाना तथा मेढ़ों को साफ रखना ।
2.जेठ की गहरी जुताई करके उसमें मौजूदा कीड़ों तथा बिमारियों की विभिन्न अवस्थाओं तथा खरपतवारों को नष्ट करे |
3. खाद
तथा अन्य तत्वों की मात्रा निर्धारिण के लिए मिट्टी परीक्षण करवाना ।
4.साफ
, उपयुक्त एवं प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना तथा बोने से पहले भूमि
एवं बीज उपचार करना ।
5. सके
उचित बीज दर एवं पौध अन्तरण रखना ।
6. पौधारोपण
से पहले पौधे की जड़ो को जैविक फफूंदनाशक ट्राइकोडर्मा विरिडी से उपचारित करके
बोना ।
7. फसल
बोआई और कटाई का समय इस तरह सुनिशिचित करना ताकि फसल कीड़ो तथा बीमारियों के
प्रमुख प्रकोप से बच सक सके ।
8. पौधे
की सही सघनता ( प्लांट डेंसिटी ) बनाये रखे ताकि पौधे स्वस्थ रहे ।
9. समुचित
जल प्रबन्धन
10. उर्वरक
प्रबन्धन अर्थात उर्वरक की सही मात्रा उचित समय पर देना । फसल की समय से उचित नमी
में सन्तुलित खाद व बीज की मात्रा डाले ताकि पौधे प्रारम्भिक अवस्था में स्वस्थ रह
कर खरपतवारों से आगे निकल सके ।
11. फसल
चक्र अपनाना अर्थात एक ही फसल को उसी खेत में बार बार न बोना । इससे कई कीड़ो तथा
बीमारियों का प्रकोप कम हो जाता है ।
12. समकालिक
रोपण करना ।
13.खरपतपार
का समुचित प्रबन्धन करना । यह पाया गया है कि बहुत से खरपतवार कई तरह की बीमारियों
तथा कीडों को संरक्षण देते हैं ।
14.बोआई
के 45 दिनों तक खेतों से खरपतवारों को फूल आने की अवस्था से पहले ही निकाल
कर नष्ट कर दें ।
0 Comments
नमस्कार अगर आप को जानकारी अच्छा लगे तो हमें कमेंट और फॉलो करे |