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Mechanical Method : यांत्रिक विधि

 2. यांत्रिक विधि

इस विधि को फसल रोपाई के बाद अपनाना अति आवश्यक है । इसके अंतर्गत निम्न तरीके अपनाएं जाते है : 

1 . कीड़ों के अण्ड समूहों , सूडियों , प्यूपों तथा वयस्कों को इकट्ठा करके नष्ट करना । रोगग्रस्त पौधों या उनके भागों को नष्ट करना ।

2.खेत में बांस के पिंजरे ( बर्ड पर्चर ) लगाना तथा उनमें कीड़ो के अण्ड समूहों को इकट्ठा करके रखना ताकि मित्र कीटों का संरक्षण तथा हानिकारक कीटों का नास किया जा सके |

3. प्रकाश प्रपंच की सहायता से रात को कीडो को आकर्षित करना तथा नष्ट करना ।

4. कीड़ो की निगरानी व उनको आकर्षित करने के लिए फेरोमोन ट्रेप / गंध प्रपंच का प्रयोग करना तथा आकर्षित कीड़ो को नष्ट करना ।

5. फलों एवं कटुवर्गीय फसलों में फल मखी ( डाँसी ) के प्रबंधन हेतु मिथाइल युजिनाल ल्युर एवं क्यू ल्युर का प्रयोग करना ।  

6. हानिकारक कीट जैसे सफेद मक्खी व माहू के प्रबंधन के लिए पीला चिपचिपा प्रपंच थ्रिप्स व जसीड के लिए । नीला चिपचिपा प्रपंच हरा फुदका के लिए हरा चिपचिपा प्रपंच , अमेरिकन पिन वर्म के लिए काला चिपचिपा प्रपंच का प्रयोग करना ।

7.धान के नर्सरी में केस वर्म एवं हिस्पा के प्रबंधन हेतु टिप क्लिपिंग करे , जिससे कि कीट अंडे देने से वंचित रह जाये ।

8.पत्ती लपेटक कीट ( Leaf Folder ) के रोकथाम के लिए दो ऐंठन नारियल की रस्सी को फसल के ऊपर से दबा के चला दे ताकि कीट के लार्वा , प्यूपा खेत के पानी में गिर कर नष्ट हो जाये ।

9. पत्ती लपेटक कीट ( Leaf Folder ) के अधिक प्रकोप होने पर काटेदार झाड़ी से पत्तियों को फाड़ दे ताकि कीट के लार्वा , प्यूपा खेत के पानी में गिर कर नष्ट हो जाये ।

10. सफेद गिडार ( White Grub ) के रोकथाम के लिए डब्लू.जी . प्रपंच का प्रयोग करें या प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें ।

3. अनुवांशिक नियन्त्रण : इस विधि से नर कीटों में प्रयोगशाला में या तो या फिर रेडिऐशन तकनीक से नंपुसकता पैदा की जाती है । और फिर उन्हें काफी मात्रा में खेत में छोड़ दिया जाता है ताकि वे वातावरण में पाए हाने वाले नर कीटों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें । लेकिन यह विधि द्वीप समूहों में ही सफल पाई जाती है |

 4. संगरोध नियन्त्रण : इस विधि में सरकार के द्वारा प्रचलित कानूनों को सख्ती से प्रयोग में लाया जाता है जिसके तहत कोई भी मनुष्य कीट या बीमारी ग्रस्त पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थानों को नहीं ले जा सकता । यह दो तरह का होता है जैसे घरेलू तथा विदेशी संगरोध

5. जैविक विधि : जैव नियन्त्रण फसलों के नाशीजीवों ( Pest ) को नियन्त्रित करने के लिए प्राकृतिक शत्रुओं को प्रयोग में लाना जैव नियन्त्रण कहलाता है । नाशीजीव फसलों को हानि पहुँचाने वाले जीव नाशीजीव कहलाते है ।

प्राकृतिक शत्रु : प्रकृति में मौजूद फसलों के नाशीजीवों के नाशीजीव प्राकृतिक शत्रु ' , ' मित्र जीव ' , ' मित्र कीट ' , ' किसानों के मित्र ' , ' वायो एजेंट ' आदि नामों से जाने जाते हैं ।

जैव नियन्त्रण , एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन का महत्वपूर्ण अंग है । इस विधि में नाशीजीव व उसके प्राकृतिक शत्रुओं के जीवनचक्र , भोजन , मानव सहित अन्य जीवों पर प्रभाव आदि का गहन अध्ययन करके प्रबन्धन का निर्णय लिया जाता है |

जैव नियन्त्रण के लाभ  :-

1. जैव नियन्त्रण अपनाने से पर्यावरण दूषित नहीं होता है ।

2. प्राकृतिक होने के कारण इसका असर लम्बे समय तक बना रहता है ।  

3. अपने आप बढ़ने ( गुणन ) तथा अपने आप फैलने के कारण इसका प्रयोग घनी तथा ऊँची फसलों जैसे गन्ना फलदार पौधों , धान्य फसलों में आदि में आसानी से किया जा सकता है ।

4. केवल विशिष्ट नाशीजीवों पर ही आक्रमण होता है अतः अन्य जीव प्रजातियों , कीटों , पशुओं , वनस्पतियों व मानव पर इसका काई प्रभाव नहीं होता है ।

5. अवशेष प्रभाव नहीं होता है अतः फसल उपयोग के लिए काई प्रतीक्षा समय नहीं होता है ।

6. इनका उपयोग सस्ता होता है ।

7. किसान अपने घर पर भी इनका उत्पादन कर सकते हैं ।

जैविक नाशीजीव नियंत्रण विस्तृत

फसलों के नाशीजीवों ( Pest ) को प्रबंधन करने के लिए दूसरे जीवों को प्रयोग में लाना जैव प्रबंधन ( Biological pest Management ) कहलाता है । जैव प्रबंधन , एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन का महत्वपूर्ण अंग है । इस विधि में नाशीजीवी व उसके प्राकृतिक शत्रुओं के जीवनचक्र , भोजन , मानव सहित अन्य जीवों पर प्रभाव आदि का गहन अध्ययन करके प्रबन्धन का निर्णय लिया जाता है । विभिन्न नाशीजीवों के नियंत्रण में उपयोग होने वाले प्राकृतिक शत्रुओं का विवरण निम्न प्रकार से हैं : नाशीजीवों के प्राकृतिक शत्रु कीटों ( नाशीजीवों ) के नियन्त्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले प्राकृतिक शत्रुओं की तीन श्रेणियां है :-

1. परजीवी ( Parasitoids )

2. परभक्षी ( Predators )

3. रोगाणु ( Pathogens )

1. परजीवी ( Parasitoids ) : परजीवी कीट अपना जीवन चक्र दूसरे कीड़ो के शरीर में पूरा करते हैं जिसके परिणामस्वरूप दूसरे कीड़े मर जाते हैं यह परजीवी कई प्रकार के होते है जैसे अण्ड परजीवी , प्यूपा परजीवी , अण्ड सुण्डी परजीवी व्यस्क परजीवी आदि । इनके उदहारण है ट्राकोग्रामा , ब्रेकान , काटेशिया , किलोनस एन्कारशिया इत्यादि ।

2 ) परभक्षी ( Predators ) : परभक्षी अपने भोजन के रूप में दूसरे कीडों का शिकार करते हैं । ये नाशीजीवों को खा जाते हैं । इनके उदाहरण हैं मकड़ी , ड्रेगनफ्लाई , डेमसेलपलाई कोकसीनेलिड बीटल , प्रेइंगमेन्टिस , क्राइसोपरला , सिरफिड मक्खी , ग्रीन लेसविग इअर विग , ततैया , चींटियां , चिड़िया , पक्षी , छिपकली इत्यादि । 3 ) रोगाणु ( Pathogens ) : रोगाणु सूक्ष्मजीव होते है , हारिकारक कीटो में बीमारियाँ उत्पन्न करके उन्हें मार डालते है । रोगाणुओं की प्रमुख श्रेणियां है : फफेद , बैक्टीरिया तथा वायरस इनके अतिरिक्त कुछ सूत्रकृमि ( Nematodes ) भी कीटों में बीमारियां उत्पन्न करके उन्हें मार डालते हैं । इनके उपयोग और प्रभाव के कारण इन्हें बायोपेस्टिसाइड भी कहते हैं । इनके उदहारण हैं

1. फफूंद : प्रकृति में 90 प्रतिशत कीट , उनकी विभिन्न अवस्थाएं ( अंडे , सूंडी , प्यूपा , व्यस्क ) फफूँद के आक्रमण से नष्ट हो जाते हैं । इनके उदहारण हैं : व्यूवेरिया बेसियाना मेटारिजियम एनिसोप्ली , हिरिस्टुला , वर्टिसिलियम लिकेनी , पर्पुरीयोसीलम लिलेसिनाम ( इ.पी.एन. ) आदि । फफूंद का आक्रमण सभी कीटों पर लगभग समान रूप से होता हैं । फफूंद के आक्रमण से कीट 10 से 15 दिनों में मर जाते हैं । मेटारिजियम एनिसोप्ली का प्रयोग टिड्डी दल के नियन्त्रण में व्यापक रूप से किया जा रहा है । व्यूवेरिया बेसियाना नरम शरीर वाले कीड़ो के लिए बहुत प्रभावी है । फफूंद संक्रमण द्वारा कीड़ों को मारती है फफूद द्वारा संक्रमण के लिए नमी का होना आवश्यक है । संक्रमण शरीर से संपर्क में आने से होता है । फफूंद कीड़ों क सभी अवस्थाओं पर प्रभावकारी होती हैं । कुछ फफूंद जैसे ट्राइकोडर्मा विरिडी व हर्जीएनम भूमि एवं बीज जनित रोगों के रोकथाम हेतु प्रयोग में लाया जाता है फसल रोगों जैसे उकठा , जड़ सड़न , फल सड़न , कार्म सड़न आदि में ट्राइकोडर्मा विरिडी व हर्जीएनम रामबाण प्रबंधन है ये फफूंद पौध बढ़वार नियामक ( पी.जी.आर. ) का भी काम करते है । अनुसन्धान में 1 ऐसा पाया गया है कि ट्राइकोडर्मा विरिडी व हर्जीएनम से भूमि शोधन करने से खरपतवार की समस्या को भी कम किया जा सकता है ।

2. बैक्टीरिया : प्रकृति में बेसीलस थूरिनजैंसिस और बेसिलस पौपिली , सब्दिलिस नामक बैक्टीरिया कीट नियन्त्रण में प्रभावकारी है । लैपीडोप्टेरन कीटों के नियंन्त्रण में बेसिलस थूरिनर्जेसिस का उपयोग व्यापक रूप से किया जा रहा हैं । बैक्टीरिया संक्रमण द्वारा कीड़ों को मारते हैं , संक्रमण आहार द्वारा होता है । बैक्टीरिया जैसे सुडोमोनास फ्लोरेसेंस आदि का प्रयोग रोग एवं कीट प्रबंधन में किया जाता है । कुछ बैक्टीरिया जैसे राइजोबियम , अजोटोबेक्टर , अजोस्पिरिलम कल्चर आदि का प्रयोग बीज शोधन करने से उत्पादन में बढ़ोतरी होती है ।

3. वायरस : प्रकृति में न्यूक्लियो - पालीहाइड्रोसिस वायरस और ग्रेन्यूलोसिस वायरस नामक वायरस कीट नियंत्रण में प्रभावकारी हैं वायरस संक्रमण द्वारा कीड़ों को मारते हैं । संक्रमण आहार द्वारा होता है । वायरस स्पीसीज स्पेसीफिक होते है । एक स्पीसीज के लिए उसका खास वायरस ही लाभकारी होगा । अतः वायरस के प्रयोग से पहले कीड़ों की सही पहचान हाना आवश्यक है ।

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